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KORBA EXCLUSIVE: एक एफआईआर, ओवरराइटिंग और उलझी पुलिस—किसकी नीति, कैसी नीयत? डेढ़ घंटे तक सड़क और थाने में पिटा आदिवासी किसान—तो आखिर कब हुई ‘छेड़छाड़’? ✍️ रिपोर्ट: रितेश गुप्ता| LallanGuru News

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कोरबा की बांकीमोंगरा थाना क्षेत्र की एक हालिया घटना ने पुलिसिंग की साख, पारदर्शिता और निष्पक्षता को कटघरे में ला खड़ा किया है। एक ओर महिला सुरक्षा का हवाला, दूसरी ओर तमाम साक्ष्यों को दरकिनार कर एक आदिवासी किसान पर दर्ज गंभीर धाराएं। ये पूरा घटनाक्रम पुलिस की कार्यशैली पर सवाल खड़े करता है—क्या यह न्याय की खोज थी या दबाव में लिया गया पक्षपातपूर्ण फैसला?
घटना या कथा: पहले पिटाई, फिर एफआईआर, और बाद में छेड़छाड़ का आरोप!
7 मई 2025 की शाम। समय लगभग 4:30 से 6:00 बजे। रावणभाठा मार्ग पर भाजपा नेत्री और आदिवासी किसान बलवंत सिंह कंवर के बीच विवाद होता है। आरोप है कि बैल को साइड देने की बात पर कहासुनी होती है। फिर वह किसान को भरी सड़क पर पीटते हुए थाना तक ले जाती हैं। इस पूरे दौरान—ना “छेड़छाड़” का कोई उल्लेख, ना पुलिस द्वारा कोई हिरासत।
थाना परिसर में भी वीडियो में कोई महिला सुरक्षा उल्लंघन नहीं दिखता—बल्कि गाली-गलौज और क्रोध में हिंसा करती नेत्री ही दिखती हैं।
प्रश्न यह कि: अगर उस वक्त बलवंत सिंह ने वाकई छेड़छाड़ की होती, तो मौके पर ही गिरफ्तारी क्यों नहीं हुई?
FIR का टाइमलाइन ट्रैप: जब तारीखें ही बोलने लगें तो पुलिस को क्या कहना?
8 मई: किसान बलवंत सिंह की ओर से नेत्री और सहयोगियों के खिलाफ FIR दर्ज।
9 मई: नेत्री द्वारा थाने में लिखित शिकायत—जिसमें छेड़छाड़ का गंभीर आरोप जोड़ा गया।
लेकिन: पुलिस पावती में दिनांक 9 जून की मुहर, जबकि आवेदन की तारीख में पेन से ओवरराइट कर 7 जून लिखा गया है! तो क्या पुलिस ने “मैन्युपुलेटेड टाइमलाइन” के सहारे मामला मोड़ने की कोशिश की?
पुलिस की चुप्पी या मिलीभगत? कुछ सवाल जिनके जवाब ज़रूरी हैं:
1. 7 मई को ही बलवंत को थाने लाया गया—तो छेड़छाड़ के आरोप उसी समय क्यों नहीं दर्ज हुए?
2. क्या थाना परिसर में मौजूद अधिकारी, ड्यूटी अफसर, आरक्षक, किसी ने यह नहीं देखा कि कानून हाथ में लिया जा रहा है?
3. यदि घटना 7 जून की है तो FIR दो दिन बाद 9 जून को क्यों हुई?
4. थाने में दिए आवेदन में ओवरराइटिंग किसने की? और क्यों की?
महिला सम्मान जरूरी—but fabricated FIRs से बचे पुलिस
यह कोई साधारण मामला नहीं। एक तरफ महिला सम्मान और अस्मिता, तो दूसरी ओर आदिवासी किसान का उत्पीड़न। सामाजिक न्याय की कसौटी पर पुलिस की भूमिका को निष्पक्ष होना चाहिए—ना कि राजनीतिक या सामाजिक दबाव में झुककर एकतरफा कार्रवाई करना। इस पूरे घटनाक्रम में अगर वाकई बलवंत दोषी है तो उसे सजा जरूर मिले, लेकिन अगर यह एक रची गई कहानी है—तो पुलिस खुद न्यायिक अवमानना की दोषी बन सकती है।
क्या पुलिस अब ‘विवेचना’ से पहले ‘विवशता’ में काम कर रही है?
बांकीमोंगरा थाना में दर्ज यह एफआईआर अब केस कम और उदाहरण ज़्यादा बनती जा रही है—एक ऐसा उदाहरण जहाँ पुलिस की प्राथमिकता ‘सच’ नहीं, ‘दबाव’ बन गया लगता है। आदिवासी समाज का आक्रोश, सोशल मीडिया पर उठे सवाल और तथ्यों की टाइमलाइन पुलिस की कार्यशैली पर गंभीर सवाल उठाते हैं।
1. पूरे प्रकरण की स्वतंत्र जांच कराई जाए।
2. ओवरराइटिंग वाली पावती और मूल आवेदन की फॉरेंसिक जांच हो।
3. वीडियो फुटेज और घटनास्थल पर मौजूद प्रत्यक्षदर्शियों के बयान सार्वजनिक किए जाएं।
4. पुलिस के उच्च अधिकारियों को जवाबदेह ठहराया जाए—क्योंकि एक एफआईआर से न केवल एक किसान की जिंदगी बदल सकती है, बल्कि कानून की साख भी।
कोरबा पुलिस के लिए यह केस नहीं, कसौटी है—सवाल सिर्फ बलवंत का नहीं, सिस्टम की नीयत का है।
Ritesh Gupta
Author: Ritesh Gupta

Professional JournalisT

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