कोरबा, छत्तीसगढ़ |प्रदेश के अन्य हिस्सों की तरह अब कोरबा जिला भी रेत माफिया के शिकंजे में जकड़ता जा रहा है—और ये सब कुछ हो रहा है सत्ता और संगठन की खुली सरपरस्ती में। जनहित, प्रशासन और कानून की धज्जियाँ उड़ती नजर आ रही हैं, जबकि चुनी हुई सरकार “सुशासन” के नाम पर मूकदर्शक बनी हुई है।
🔥 सत्ता बदली, माफिया बेलगाम
जब कांग्रेस की सरकार थी तो कुछ भाजपा नेता रेत की कीमतों और अवैध खनन पर सड़क पर उतरे थे। लेकिन सत्ता परिवर्तन के बाद हालात ये हैं कि अब वही भाजपा से जुड़े नेता और उनके करीबी अवैध खनन के संरक्षक बन बैठे हैं। घाटों पर खुलेआम रेत की लूट मची हुई है और कोई कुछ बोलने वाला नहीं है।
😡 टास्क फोर्स फेल, कलेक्टर के निर्देश हवा में
कलेक्टर की सख्ती के बावजूद प्रशासनिक तंत्र पूरी तरह विफल दिख रहा है। टास्क फोर्स नाम की खानापूर्ति हो रही है, जबकि जिले के घोषित-अघोषित रेत घाटों में माफिया बेखौफ खनन कर रहे हैं। पंचायत प्रतिनिधि जब रॉयल्टी मांगते हैं तो उन्हें धमकाया जाता है—”जान की सलामती चाहते हो तो चुप रहो वरना गोली मार देंगे!”
🔫 पत्रकार को दी गई हत्या की धमकी
अब हालात इतने बेकाबू हो चुके हैं कि एक युवा पत्रकार को भाजपा के एक प्रभावशाली नेता के सामने ही रेत माफिया ने गोली मारने की धमकी दे डाली। क्या अब पत्रकारिता करना भी जान जोखिम में डालना हो गया है? ये सवाल केवल कोरबा नहीं, पूरे छत्तीसगढ़ की अंतरात्मा को झकझोर रहा है।
🩸 क्या अब कोरबा में भी रक्तपात की बारी?
दूसरे जिलों में रेत माफियाओं के चलते हुई हिंसक घटनाओं के बाद कोरबा में भी किसी बड़ी अनहोनी का डर बढ़ गया है। कुछ भाजपा नेता खुद एफआईआर करवा चुके हैं, कुछ धमकियाँ झेल चुके हैं, तो कुछ चुपचाप हिस्सेदारी में शामिल हो चुके हैं।
🕳️ कौन है असली जिम्मेदार?
प्रशासन, खनिज विभाग या राजनीतिक संरक्षण? असल में सब एक दूसरे की ढाल बने हुए हैं। रेत माफिया मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय के ही विभाग में खुलेआम हस्तक्षेप कर रहे हैं, मगर कार्रवाई का नामोनिशान नहीं। क्या संगठन और सरकार में संवादहीनता है या मिलीभगत?
अब सवाल ये नहीं कि रेत माफिया कौन हैं—बल्कि ये है कि क्या कोरबा की जनता, पत्रकार और जनप्रतिनिधि खुद को सुरक्षित महसूस कर सकते हैं? क्या मुख्यमंत्री सख्ती दिखाएंगे या कोरबा भी खूनी राजनीति और माफियागिरी का मैदान बन जाएगा?

Author: Ritesh Gupta
Professional JournalisT